सोमवार, 9 नवंबर 2015

                   अजीब मोड़

जीवन के इस मोड़ पर एक बार फिर अनुभव हुआ कि बुजुर्ग ठीक ही कहते हैं. उनके कथनों में जीवन के अनुभवों का निचोड़ और सार होता है. हम जब तक जीवन के उस मोड़ तक नहीं पहुँचते, हम उनके कथनों की सत्यता को जान नहीं पाते, परखने की बात तो और रही. मौत के बाद तो लोग लाश के सामने उनके तारीफों के पुल बाँध देते हैं भले ही जीवन भर वह लुच्चा लफंगा रहा होगा या उसे ऐसा कहा गया होगा. हो सकता है कि उसके जीवन काल में उसकी कोई औकात ही न रही हो. एक हिंदी सिनेमा छोटी सी बात में भी इसी मुद्दे पर ए गाना भी था – न जाने क्यों होता है यूँ जिंदगी के साथ, किसीके जाने के बाद, करे फिर उसकी याद ,छोटी छोटी सी बात, न जाने क्यों

बात साफ है कि जब व्यक्ति सामने होता है तो उसकी खूबियाँ नजर-अंदाज हो जाती हैं या की जाती है किंतु उसके जाते ही उसकी महत्ता का आभास हो जाता है. ऐसा ही कुछ अब मेरे साथ हो रहा है - हो चुका है.


जो साथी अब उच्च पदासीन हैं वो अब मुझे याद कर रहे हैं कि मैं जाते - जाते सहकर्मियों से अपने अनुभवों से अवगत करा जाऊँ. मुझे इसी बात पर संदेह होता है कि कभी किसी ने ऐसा आभास होने ही नहीं दिया कि मेरे अनुभवों की भी किसी को आवश्यकता पड़ सकती है. उनमें निहित सार भी किसी के काम का हो सकता है. वैसे भी 30-32 साल के अनुभवों से सहकर्मियों को सही तरह से अवगत कराने के लिए समय दिनों में नहीं महीनों मे लग जाएगा.

2-3 दिनों में साझा करना महज औपचारिकता के सिवा कुछ नहीं होगा. और मुझे औपचारिकताओं पर विश्वास नहीं है.