शुक्रवार, 13 जून 2014

पर्यावरण – हम क्या करें.

पर्यावरण – हम क्या करें.

आज पर्यावरण बहुत ही जाना पहचाना शब्द है. सबको पता है कि औद्योगिक इकाईयों से निकलने वाली गैसें प्रदूषण करती हैं. जिससे पर्यावरण दूषित होता है तथा यह आम आदमी की सेहत पर विभिन्न प्रकार से दुष्प्रभाव डालता है. पर्यावरण दूषित होने से हवा में ऑक्सीजन की मात्रा तो कम हो जाती है. साथ में इसके असर वायुमंडल को हानि पहुँचाकर सूरज के अवाँछनीय किरणों को भी धरती पर आने का न्यौता देती हैं, जो खतरनाक और नई बीमारियों की जड़ बन रही है. ध्रुवों की बर्फ के पिघलने के कारण सारी धरती के तापमान पर कुप्रभाव पड़ रहा है. इसका एक पहलू ग्लोबल वार्मिंग के नाम से जाना जाता है. इन सब के बावजूद आज भी जन साधारण को पता नहीं है कि इस के लिए वह क्या करे या वह क्या कर सकता है? ऐसी विषम परिस्थिति में जन साधारण जो सहयोग कर सकता है उसके बारे में ही यह लेख है.

सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि पर्यावरण का सीधा संबंध स्वच्छता और सफाई से है. स्वच्छता बनाए रखने से पर्यावरण का बहुत कुछ काम होता है. जैसे सफाई रहे तो मच्छर, कीड़े मकोड़े कम होंगे. बीमारियाँ कम होंगी. लोग स्वस्थ रहेंगे. लोग अपने दुपहिए चार पहिए वाहनों को स्वस्थ रखेंगे, तो उसके ईँधन का सही प्रयोग हो पाएगा, ईंधन बचेगा एवरेज अच्छा मिलेगा. अन्यथा कार्बन मोनो ऑक्साईड (CO) उत्पन्न होगा जो एक अस्थिर रसायनिक पदार्थ है. यह वातावरण से ऑक्सीजन (प्राण वायुलेकर एक स्थिर पदार्थ कार्बन डाई ऑक्साईड (CO2)बनाता है. यह वातावरण को दूषित करता है. इस तरह से अपने वाहनों का सही रखरखाव करना वातावरण को दूषित करना और प्रदूषण फैलाना है, जिसे बचाया जा सकता है. यह पर्यावरण के लिए भी घातक है.

धूम्रपान करने से सेहत को क्षति पहुँचती है यह सब जानते हैं पर वे यह नहीं सोचते कि जो घुआँ वे छोड़ते हैं या जो धुआँ बीड़ीसिगरेट के जलने से वातावरण में फैलता है, वह वातावरण को भी तो खराब करता होगा. इस तरह धूम्रपान सेहत के लिए ही नहीं पर्यावरण के लिए भी हानिकारक है.

आज भी ऐसे क्षेत्र हैं, जहाँ कोयले से, लकड़ी से और तरह की ईँधनों से खाना पकाया जाता है. इनका धुआँ फिर वही काम करता है जो वाहनों का धुआँ और धूम्रपान का धुआँ करता है. यानि यह भी वातावरण से जीव वायु हर लेता है और फिर वातावरण को दूषित भी करता है. लोगों को चाहिए कि यथासंभव रसोई गैस का प्रयोग करें और सरकार को चाहिए कि इनको ध्यान में रखकर रसोई गैस का उचित प्रबंध करे. रसोई गैस बनाने में वातावरण पर असर तो होता है, पर इसी दौरान अन्य पेट्रोलियम पदार्थ भी बन जाते हैं, सो रसोई गैस का इस्तेमाल करने से वातावरण पुनः प्रदूषित नहीं होता. वैसे ही बिजली के प्रयोग से वातावरण अतिरिक्त प्रदूषण का  शिकार नहीं होती. बिजली उत्पादन में जले ईँधन चाहे कोयला हो या तेलपर्यावरण को खराब कर चुके हैं.

कार्बन के अलावा भी तरह तरह के प्रदूषण फैलाने वाले तत्व औद्योगिक चिमनियों से निकलने वाली गैसों में होते है. पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण विभाग तो अपना काम करते हैं पर यह संभव नहीं है कि इन्हीं के सहारे सब छोड़कर संतुष्ट हो जाएं. सारे औद्योगिक इकाईयों को सँभालना उनके बस की बात नहीं है. उद्योगपतियों को, वहाँ के कामगारों अधिकारियों को भी प्रदूषण नियंत्रण अधिकारियों का साथ निभाना होगा. यानि खाना पूर्ति नहींदिल लगाकर, सहभागी बनकर कार्यक्रम को पूरा करना होगा. वरना आप तो कमा लोगे, पर सारी जनता का श्राप सर पर लेकर चलोगे.

कभी हर मकान के सामने एक बगीचा हुआ करता था. उसमें सड़क के किनारे छायादार, फलदार या औषधियों वाले पेड़ लगे होते थे. घर की खिड़की दरवाजों के पास फूलदार महकने वाले पौधे होते थे. उस पर कोई जगह रह गई हो तो उसमें साग-सब्जी के पौधे लगा लेते थे. अब ही जमीन पर इतनी जगह बची है और ही दिल में.शायद आर्थिक या सामाजिक परिस्थितियों के कारण लोग आज कल कॉँक्रीट के जंगलों में रहते हैं, भूतल वासियों को थोड़ी बहुत जमीन नसीब हो जाती है, बाकियों को कहाँ. पौधे गमलों में लगाए जाते हैं, पर फूल वाले फल वाले ... केवल सजावटी. पर घर के भीतर हरियाली मच्छरों को न्योता है. यह सबको पता है पर लोगों के पास इस ज्ञान के बारे सोचने का वक्त नहीं है.

पेड़ दिन में ऑक्सीजन देते हैं और रात में कार्बन डाई ऑक्साईड. इसी लिए पेड़ों का होना जीवन के लिए लाभकारी है, फल, फूल, पत्ते, छाँव तो अतिरिक्त लाभ हैं. इसीलिए रात में पेड़ के नीचे आराम करने को मना किया जाता है. दिन में छाँव के अलावा आराम मिलने का एक कारण यह प्राणवायु भी है. एक और खास बातकरीब हर घर के आँगन में तुलसी का पौधा लगाया जाता है. लोग इस की पूजा भी करते हैं. पता नहीं कितनों को ज्ञात है कि तुलसी एक ऐसा पौधा है जो चौबीसों घंटे प्राणवायु उत्सर्जित करता है. इसीलिए लोग इसे आँगन में ही लगाए रखते हैं. तुलसी के होने से आस पास साँप भी नहीं नजर आते हैं. तुलसी के पत्ते और तुलसी दळ भी औषधियों में काम आते हैं.

अब देखिए, पौधों से जहाँ फल, फूल, पत्ते प्राप्त होते हैं, वहीं राहगीरों को छाँव समाज को प्राणवायु मिलती है. नदीतट पहाड़ की तराईयों में यो पेड़ मिट्टी को बाँध कर रखने का काम करते हैं. नदी तट के कटाव को यह रोकता है. कई तरह के पेड़ों के बीज नदी जल मे गिरकर पानी को निथारने का काम करते हैं जिससे सतह का पानी हमेशा पीने योग्य होता है. कई तरह केपौधों पेड़ों में औषधीय गुण हैं जो आयुर्वेद में प्रयुक्त होते हैंफिर भी नासमझ इंसान पेड़ों की बेरहमी से कटाई किए जा रहा है.
जंगल वन्य प्राणियों का निवास स्थल है. यहि वन काट दिए जाएं तो वे कहाँ जाएंगे. शहर आने सो नरभक्षी कहकर गोली मार दी जाती है. इस तरह जंगल काटकर हम वन्य प्राणियों के संहार का कारण बन रहे हैं. इसी तरह पत्थरों के लिए एवं रिहाईशी जगह के लिए पर्वत भी तोड़े जा रहे हैं. पहाड़ों से टकराकर ही तो बादल बरसात करते हैं. यदि पहाड़ ही नहीं रहे तो बादल बिना बरसे ही आगे बढ़ जाया करेंगे और बिन बारिश के फसल तो होगी ही नहीं. इस तरह हमारी आदतें हमारी अपनी जीवनी में तकलीफ देने वाली साबित होंगी. इनसे परहेज करना पड़ेगा.

पेड़ों को काटने के मुख्य कारण हैंईंधन हेतु, फर्निचर के लिए कागज बनाने हेतु, माचिस  तीलियों के लिए,, झाड़ू के लिए, पेंसिल के लिए, अगरबत्तियों के लिए एवं अन्य सुविधाओं के लिए. इसकी जानकारी होने पर हमें इनका विकल्प खोजना चाहिए. ईंधन के लिए सरकार को चाहिए कि एल पी जी को बढ़ावा देएल्यूमिनियम के दरवाजे और पल्ले कुछ कीमती होते हैं, पर काफी आकर्षक भी होते हैं. लोगों को चाहिए कि घरों मे खिड़की और दरवाजों के चौखट लकड़ी के बना कर लोहे या एल्यूमिनियम के बनाएं. पल्ले तो काँच या एक्रीलिक के भी आने लगे हैं. भीतरी दरवाजे काँच या एक्रीलिक के तो हो ही सकते हैं. माचिस की तीलियाँ मोम से बनने लगीं थीं, पर जाने क्यों अब कम ही दिखती हैं. वैसे ही पेन्सिल भी एक्रीलिक के बनने लगे थे, पर अब गुम हो गए. माचिस के डब्बे भी अब लकड़ी के बदले कागज से बन रहे हैं. हमें चाहिए कि उन्हें भी प्लास्टिक के बनाएँ. बची बात अगरबत्तियों की, जिसमें कोई पहल नहीं हुई. हमें इस तरफ सोचना चाहिए. फर्नीचर तो धातु के या फिर एक्रीलिक के बाजार में ही गए हैं. अब सरकार को भी पहल कर इस दिशा में कानून बना देना चाहिए. झाड़ू भी लकड़ी की जगह अब सेलो जैसे प्लास्टिक के आने लगे हैं.

पेड़ों के कटाई का एक बड़ा हिस्सा पेपर बनाने में निवेश हो जाता है. अब तक पेपर का विकल्प खोजा नहीं जा सका है. कम्प्यूटर के जरिए पेपर के उपयोग को कम किया जा रहा है पर इस दिशा में बहुत काम अभी बाकी है. पेकेजिंग के लिए भी लकड़ी, कागज और गत्ते का प्रयोग होता है. इसके विकल्प पर भी ध्यान देना आवश्यक हो गया है.
हालाँकि प्लास्टिक कुछेक जगह पेपर का विकल्प बन सकता है लेकिन अपने आप में प्लास्टिक खुद एक समस्या है. यह वातावरण में प्राकृतिक तरीकों से नष्ट नहीं होता. वरन् जानवर इसे खाकर, गला अवरोधित कर लेते हैं और प्लास्टिक उनकी जानहानि का कारण बन जाता है.

रखरखाव सही होने पर खतरे का अनुमान तो भोपाल गैस काँड से लगाया जा सकता है. सुरक्षा नियमों का सही अनुपालन होने पर आगजनी की घटनाएँ होती हैं और फिर वातावरण प्रदूषित होता है. याद कीजिए जयपुर तेल डिपो (टर्मिनल) की आग, विशाखापत्तिनम के रिफाईनरी की आग. नुकसान की भरपाई क्या होगी .. सब खाक हो जाता है.

लोग कपड़े धोने के बाद बचे साबुन के पानी को नाले में बहा कर WC (लेट्रिन) में डाल देते हैं शायद उन्हें पता नहीं होता कि साबुन के पानी से सेप्टिक टैंक में पल रहे कीटाणु मर जाते हैं. ये कीटाणु मल को विघटित करने का काम करते हैं. जिससे विघटन का काम धीमा पड़ जाता है और गंदगी होने का डर रहता है.

अब आईए पूजा स्थल पर. पूजा की सारी सामग्री को पूजा के बाद एकत्रित कर जलप्रवाह कर दिया जाता है. जहाँ जिसे जैसा जल भंडार मिलता है वह उसमें बहा आता है. लेकिन कोई भी अपने घर के कुएं में इन्हें नहीं बहाता. क्यों ? स्थिर पानी में बहाने से ये फूल पत्ते सड़कर पानी को गंदा करते हैं. बहतेपानी में बहाने पर ये सड़ते तो है पर धारा प्रवाह में मँझधार की तरफ हो लेते हैं और सड़ कर नैसर्गिक विघटन के बाद कहीं तली पर या तट पर समा जाते हैं. इससे वह तटीय पानी दूषित नहीं होता जो जन साधारण के काम आता है.

वैसे ही सार्वजनिक पूजा की प्रतिमाएँ भी जल में विसर्जित की जाती हैं. इनके साथ भी यही समस्या है. बल्कि इनमें मिट्टी के अतिरिक्त कपड़ा, लकड़ी , प्लास्टिक और लोहा भी होता है.. मिट्टी तो घुल जाती है पर बाकी सब खराबी का काम करते हैं. खास तौर पर तालाब, झील, बाँधों में डाले गए सारे कचरे से जल दूषित होता है और एक मात्रा के बाद पीने योग्य भी नहीं रह जाता. वैसे धर्मानुसार भी इन सबका जलप्रवाह करने को कहा गया है. लेकिन हम पानी के बहने के भाव को भूलकर खाना पूर्ति के लिए कहीं भी पानी में डाल देते हैं. कोई अपने घर के कुएँ में डाले और देखे क्या फर्क पड़ता है. तब असली माजरा समझ में अएगा.

ऐसी एक और समस्या है. पीने के पानी के लिए लोग कुआँ, बोरवेल खुदवाते हैं. स्वाद के आधार पर ही जाँच लिया जाता है कि पानी पीने योग्य है या नहीं. किसी को भी प्रयोगशाला में परीक्षण करवाने की जरूरत महसूस नहीं होती. दावतों के बाद फेंकी गई पत्तलें और भोजन सामग्री भी इस तरह ही फेंकी जाती है. पास के जलाशय की हालत तो बहुत बुरी हो जाती है. वैसे इनका बाहर खुले में फेंकना भी मुसीबत है. हालाँकि पूर्णतया सही नहीं है पर खाना और पत्तल अलग अलग करने से इलाके के जानवरों का पेट भर सकता है. खाना झूठा नहीं हो तो याचकों को परोसा जा सकता है. पर नहीं इसमें किसे तस्ल्ली है. बाहर फेंको और भूल जाओ.

भोज और दावत के समय शहर के सफाई विभाग को सूचित कर पत्तों बचे भोजन को सही ढंग से निबटाया जा सकता है. वे थोड़ी बहुत रकम फीस के रूप में ले लेंगे और इनका सही तरीके से विस्थापन कर देंगे. लेकिन भोज परोसने वालों के पास इतनी रकम शायद नहीं होती होगी पैसा सारा भोज में खर्च हो चुका होगा... वाह रे जमाना ... पढ लिख कर भी लोग ऐसे करने में आनंद पाते है.

यह विषय तो बहुत ही बड़ा है. सारी बातों का जिक्र यहाँ हो नहीं सकता. जितना एक आम नागरिक कर सकता है उसी के बारे कुछ कहा गया है. बात फिर कभी पूरी करेंगे. पहले लोग इससे अवगत हो लें और अपना संभव प्रयास कर प्रकृति के साथ नागरिकों को भी लाभ पहुँचाए.
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एम.आर.अयंगर


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