मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

अब की बार मोदी सरकार

 अब की बार मोदी सरकार
आस

इस बार, बल्कि दिसंबर 2013 के लोकसभा चुनाव से ही सरगर्मियां लगातार चल रही हैं. विधानसभा में अजब तरीके से आम आदमी पार्टी दिल्ली में आ गई और बाकी तीन राज्यों में भाजपा बहुमत पा गई. मात्र उत्तरपूर्वी एक राज्य में कांग्रेस अपनी साख बचा पाई थी.

तब तो ऐसा लग रहा था कि इस बार भाजपा छा जाएगी. क्योंकि दिल्ली की आम आदमी पार्टी एकदम नौसिखिया पार्टी थी. पता ही नहीं था कि -  कितने दिन की सरकार होगी ? क्या होगा ? इत्यादि. पुरानी पार्टी होती तो कोई कयास भी संभव था, पर आम आदमी पार्टी तो पूरी नई नवेली थी. उन्हें खुद नहीं पता चला कि उन्हें इतनी सीटें कैसे मिल गईं. खैर, कारण जो भी हो, डेढ माह के आसपास ही सरकार सिमट गई. इसका पूरा पूरा फायदा भाजपा को हुआ. काँग्रेस अस्तित्व की लड़ाई लड़ने की सोच रही थी क्योंकि विधान सभा चुनाव में उनकी हालत खराब हो गई थी. आम आदमी पार्टी की सरकार गिर गई थी तो साबूत बची केवल भाजपा.

राष्ट्रीय पार्टी के रूप में सब तरफ भाजपा ही दिखती थी. क्षेत्रीय पार्टियाँ तब तक ज्यादा क्रियाशील नहीं हुई थीं. इसे ही भाजपा की लहर कहा गया. सरकार में आने के तुरंत बाद से आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं एवं नेताओं की ज़ुबान बिगड़ गई. किसी पर भी किसी भी तरह के आक्षेप कसे जाने लगे. मैं इस बात पर सही गलत का निर्णय देना नहीं चाहूंगा (या समझें मैं अपने आप को इसके काबिल नहीं समझता). पर यह जरूर कहना चाहूंगा कि जिस तरह से और जिस भाषा में ये आक्षेप कसे गए, वह सही नहीं था. इससे जनमानस आप से बिछुड़ने लगा. सारे सोशल मीडिया मे व समाचार पत्रों में इस बात पर आम आदमी पार्टी की कॉफी फजीहत हुई.

इधर मोदी अपने तीखे भाषणों से कांग्रेस पर प्रहार करते रहे. भाजपाईयों की जुबान तीखी होती गई और उधर आम आदमी पार्टी को किसी तरह समझ में आया कि जुबान सुधारनी है. सो गंगा उल्टी बहने लगी. समाचार पत्रों में अब भाजपा नेताओं की बदजुबानी घर करने लगी. हालाँकि काँग्रेस अब भी अपनी शख्सियत बचाने में लगी है, पर उनके कुछ बड़बोले नेताओं ने बदजुबानी नहीं छोड़ी. इसका पूरा सहारा आम आदमी पार्टी को मिला. उसकी बिगड़ती साख लौटने लगी. भाजपा नेताओं द्वारा विपक्षियों का शहजादा, राष्ट्रीय दामाद, झाड़ूवाला, खुजलीवाल जैसे संबोधन उन पर उल्टे पड़ने लगे.

भाजपा की आपसी कलह जो सामने आई तो उसकी साख को जोरदार झटका लगा. वरिष्ठ नेताओं को जिस तरह दर किनार कर मोदी को जो स्थान दिया गया – उससे तो लगा कि मोदी भाजपाई नहीं हैं .. शायद भाजपा का अस्तित्व ही मोदी  हैं. किसी व्यक्ति विशेष का संस्थान से उपर उठ जाना संस्थान की गरिमा को ख्त्म कर देता है. वही हो रहा है भाजपा के साथ. उधर भाजपा अपनी गरिमा खराब करने में लगी है और आम आदमी पार्टी सुधारने में, अब जहाँ जहाँ आम आदमी पार्टी और भाजपा की सीधी टक्कर है .वहां आम आदमी पार्टी की साख बढ़ने से टक्कर ज्यादा घमासान होने की संभावना बढ़ गई हैं और आश्चर्य नहीं होगा कि आधे जगहों पर भाजपा को मात खाना पड़े.

फलतः अब आम आदमी पार्टी फिर से मजबूत हो गई है. वाराणसी की जो खबरें आ रही हैं, उनकी मानें तो कहना मुख्किल है कि मोदी जीत पाएंगे. जबकि कुछ महीने पहले तक, एक समय था कि केजरीवाल को वहां कोई जानता नहीं था.

अब बात आती है सरकार बनाने की. भाजपा का दाँव रहा है 272+ सीट. जो समाचार पत्र भाजपा की ओर झुके थे उनने तो भाजपा को 300+ सीट तक भी पहुँचा दिया था. कोई कहने से नहीं चूका कि भाजपा पूर्ण बहुमत हासिल कर अपने इकलौते बलबूते पर सरकार बनाएगी. शायद यही आशय स्पष्ट किया गया – अब की बार मोदी सरकार – कहकर. वोट भाजपा के लिए नहीं मोदी को लिए माँगा जा रहा था और मांगा जा रहा है. कहने को तो भाजपाई आज भी सफाई देते हुए कहते हैं कि मोदी और भाजपा दो नहीं एक ही हैं. तो पार्टी का नाम छोड़कर मोदी का नाम क्यों. य़ाद आता है पुराने दिन जब कहा गया था – इंदिरा ईज इंडिया. अब मोदी ईज भाजपा. इसी अहम् के कारण सारे मोदी विरोधी या (कहिए असमर्थक) परे किए गए. जहाँ जहां मोदी को लगा कि यह मेरा समर्थन नहीं करेगी या करेगा उसे लाईन से हटा दिया गया. सारे निर्णय मोदी जी के खुद के हैं.

भ्रष्टाचार के विरोध का जो अभियान भाजपा से चला है, साफ नजर आता है कि वह आम आदमी पार्टी की देन है. भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार विरोधी जागरूकता तो अरविंद केजरीवाल की ही देन है. इसमें दूसरा मत तो संभव ही नहीं है. जाने माने भ्रष्टाचारियों को पार्टी में शामिल करने का जो दौर शुरु हुआ, तो भाजपा और भी पिटी. उसका विरोध हुआ तो नेता को दर किनार कर दिया. हाल में जो कुछ अखबारों में पढ़ा उससे तो लगता है कि सुषमा भी दूसरी कतार में रख दी गई हैं. अड़वानी, जसवंत, टंडन, जोशी जैसे तो पहले से ही बाहर है. समय समय पर इनकी भड़ास फूटती है और फिर भाजपा का कोई नेता या अध्यक्ष राजनाथ सफाई देते फिरते हैं.

कुछेक को पार्टी में शामिल करने के बाद – अंदरूनी विरोध के कारण उन्हें तुरंत निष्काषित भी करना पड़ा. क्या एक राष्ट्रीय पार्टी के यह शोभा देता है. शामिल करने के पहले ही परख लेना चाहिए न कि बाद में हकालने की नौबल ला खड़ाकर दें. भाजपा के नेता की बदजुबानी की तो हद हो गई, जब चुनाव आयोग ने शाह पर बंदिश लगा दी. जब आम आदमी पार्टी के कुछ लोगों ने टिकट लौटा दी तो काफी शोर हुआ अब अखबार नवीसों का मुँह बंद केयों हो गया -- खबरनवीस किसने खरीदे हैं.

क्षेत्रीय पार्टियों में जयललिता और ममता की पार्टीयाँ खास तौर पर दमदार बन रही है बाकी नीतिश, लालू और मुलायम के बारे कुछ कहना अनुचित होगा. भाजपा ने दोनों नारियों से बढ़िया तालमेल की बात कही और तुरंत ही दोंनों ने भाजपा की बखिया उखाड़ फेंकी. तो समझ में साफ आ रहा है कि भाजपा के अंदर का डर अब इतना हो गया है, कि छलकने लगा है. इसे सँभाला नहीं जा पा रहा है.

छोटे बडे पार्टियों से अब भाजपा गठबंधन का बात भी कर रही है और गठबंधन भी. यानी 300+ का वहम रखने वाली पार्टी को अब 272 के भी लाले पड़ते दिखते हैं. वैसे गठबंधन अच्छी बात है, पर इतनी शेखी बघारने के बाद ऐसे करना  – आपके डर का इजहार करता है. खैर गठबंधन के साथ ही सही – भाजपा सरकार में आए यही बहुत है.

इसमें कोई शक नहीं कि भाजपा के मोदी में प्रबंधन कुशलता है. पर विपक्ष को अनदेखा करना उनकी रीत है. इसलिए पीठासीन भाजपा (खासकर मोदी के लिए) तगड़ा विपक्ष जरूरी है. इन हालातों में काँग्रेस से उम्मीद नही की जा सकती. फलस्वरूप हलातों के मद्दे नजर आस लगाए हुए हूँ कि भाजपा की सरकार के साथ विपक्ष में आम आदमी पार्टी आ जाए तो नकेल कसी रहेगी.

देखना यह है कि क्षेत्रीय पार्टियाँ और निर्दलीय किस प्रकार का मत रखते हैं.

उम्मीद पर दुनियाँ जीती है सो हम भी नजर लगाए बैठे हैं.
एम.आर. अयंगर.




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